वार्ष्णेय समाज का उद्गम

श्री अक्रूर महिमा
श्री अक्रूर धाम, मथुरा वृन्दावन
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चुनाव कार्यक्रम श्री अक्रूर धाम,मथुरा वृन्दावन

कंस का वध करने के उपरान्त जब भगवान श्री कृष्ण जी अक्रूर जी महाराज को अनुग्रहीत करने उनके घर गये तब उन्होंने अक्रूर जी को इस प्रकार सम्बोधन किया:–

भागवत 10–48–29
अर्थात आप (श्री अक्रूर जी) हमारे गुरू और चाचा है। आप सदैव हमारी प्रशंसा के पात्र बन्धु रहे है। आपके आशीर्वाद से हमारा रक्षण व पालनपोषण होता रहा है और आपसे हमारे ऊपर सदैव कृपा की है।
श्री अक्रूर जी कोई साधारण व्यक्ति नही थे। भगवान श्री कृष्ण ने उनको इतना ऊंचा स्थान दे रखा था इसका कोई कारण अवश्य रहा होगा। श्री कृष्ण जी स्वयं ही महाशाली तेजस्वी एवं दिव्य शक्तियों को धारण करने वाले थे और उनका श्री अक्रूर जी को ‘‘गुरु’’ शब्द का प्रयोग करना यह दर्शाता है कि श्री अक्रूर जी महाज्ञानी और दिव्य शक्ति के धारक थे।

श्री अक्रूर जी के बारे में प्रसिद्ध था कि वे जहाँ भी जाते थे मंगलमय वातावरण का आगमन होता था, चारों तरफ खुशियाँ का बिखर  जाना, स्वाभाविक सा हो गया था इसी कारण कहा जाता था कि उनके पैरों में दिव्य शक्ति का वास था। इसी कारण शायद भगवान श्री कृष्ण ने भी उनको वहाँ का रक्षक एवं पालन पोषण कर्ता की सँज्ञा दी हो।
इस वृतान्त की सत्यता के प्रमाण में दो घटनाओं का उल्लेख भी मिलता है। अधिक जानने के लिये click कीजिये।
 

श्री अक्रूर जी द्वारा श्री कृष्ण एवं बलराम जी को मथुरा लाना

श्री अक्रूर जी द्वारा श्री कृष्ण एवं बलराम जी को मथुरा लाना
मथुरा का राजा कंस दुराचारी और राक्षस प्रवृति का था। उसे यह भय व्याप्त हो गया था कि श्री कृष्ण ही उसका वध करने में सक्षम है। इस कारण वह सदैव श्री कृष्ण जी का वध करने की योजनायें बनाता रहता था जो हर बार विफल होती जा रही थी। ऐसी ही एक योजना के अन्तर्गत उसने श्री कृष्ण को मथुरा बुलाकर मारने की योजना बनाई लेकिन उसके सामने एक समस्या थी कि आखिर कौन श्री कृष्ण जी को मथुरा लाने के लिये प्रेरित कर सकेगा। अन्त में उसने बहुत सोच समझने के बाद श्री अक्रूर महाराज को चुना क्योंकि उसकी नजर में श्री अक्रूर ही इतने प्रभावशाली और कूटनीतिज्ञ हैं जो कृष्ण को मथुरा ला सकेंगें।
ऐसा ही हुआ और क्योंकि श्री अक्रूर जी नन्द बाबा के भी निकट थे और कंस के भी विश्वासपात्र थे, इस कारण वे इस कार्य को पूर्ण कर सके।
श्री अक्रूर जी पूर्ण ज्ञानी दानवीर तपस्वी थे, उनका स्थान एक महात्मा के समान था । इसी कारण समाज में उन्हें ‘‘महाराज जी’’ की पदवी मिली हुई थी। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि हर व्यक्ति उनकी बात का पालन करता था और उनका अनुयायी बन जाता था। श्री अक्रूर जी महाराज को केवल स्मरण करने से खुशहाली छा जाती है और सभी प्रकार के दुखों का निवारण होता है। इस तथ्य में कोई सन्देह नही है। 
 

श्री अक्रूर जी का शंका निवारण और अक्रूर धाम

जब श्री अक्रूर जी महाराज भगवान श्री कृष्ण और भाई बलराम जी को मथुरा ला रहे थे तो महाराज जी के मन में कभी–कभी शंका उठने लगी कही ऐसा न हो कि अनर्थ हो जाये और श्री कृष्ण कंस का वध न कर सकें। भगवान जी ने उनके मन की शंका को समझ लिया और इस कारण रास्तें में रथ रोककर जब महाराज जी यमुना नदी में स्नान के लिये डूबकी लगाई तो उनको वहां श्री कृष्ण एवं बलराम जी मुस्कराते हुए मिले। उन्होंने गर्दन बाहर निकालकर देखा तो दोनो ही रथ पर विराजमान थे। महाराज जी फिर
 

डुबकी लगायी और फिर भगवान के चतुभु‍र्ज रूप को देखा और देखते ही धन्य हो गये। उन्होंने प्रभु को प्रणाम किया और क्षमा मांगी कि भगवन मैं थोड़ा भटक गया था, मुझे क्षमा करें।
कहा जाता है कि भगवान ने अपने दिव्य रूप के दर्शन अक्रूर जी महाराज को सर्वप्रथम दिखाये थे और इसके बाद अपने परम मित्र पाण्डु पुत्र श्री अजु‍र्न को दिखाये।
 

महाराज धृतराष्ट्र से मँत्रणा

ऐसी ही एक अन्य महत्वपूर्ण घटना बताती है कि भगवान श्री कृष्ण ने श्री अक्रूर जी महाराज को ही महाराज धृतराष्ट्र के पास भेजा ताकि उनको समझाया जा सके की युद्ध के परिणाम बहुत ही घातक होते है  और इसकारण युद्ध करने का विचार बदल दें।

यह दोनों घटनाये, महाराज जी की महिमा को उजागर करती है और यह सिद्ध करती है कि महाराज जी कोई साधारण पुरूष नही थे बल्कि कोई देवता का रूप थे।

वृष्णि वंश में उत्पन्न हुये श्री अक्रूर जी महाराज के वँशजों ने जब व्यापार को अपनाया तो उसका प्रभाव सभी समाजों पर पड़ना निश्चित था। कालान्तर में इस समाज को ‘‘बारहसैनी’’ का नाम दिया गया। इस कुल की शक्ति एवं कार्यक्षमता किसी भी सेना की शक्ति से अधिक मांपी गयी और इसीकारण कलयुग के प्रथम चरण में इस समाज को ‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द से भी बोधित किया जाने लगा। ‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द कई स्थानों पर भगवान श्री कृष्ण जी एवं हमारा बारहसैनी समाज वृष्णि वंश

श्री अक्रूर जी महाराज की महिमा का जितना गुणगान किया जाये उतना ही कम है। भगवान श्री कृष्ण की नगरी द्वारका पर जब अकालरूपी संकट छाया तो प्रभु ने फिर श्री अक्रूर जी को ही याद किया। उनके पदार्पण करते ही, वर्षा होने लगी और अकाल दूर हो गया। इसी प्रकार के कई उदाहरणों से ग्रन्थ भरे हुये है। आज वार्ष्णेय समाज के प्रत्येक व्यक्ति को गर्व होना चाहिये कि हम श्री अक्रूरजी के वंशज है और अक्रूर जी महाराज उसके इष्ट देव है। 

श्री अक्रूर जी महाराज की जय।